Thursday, March 5, 2015

क्या सच में अरविन्द तानाशाह है?

शायद पार्टी बनने के बाद से लेकर आज तक ऐसा पहली बार हुआ है की अपने आप को "आम आदमी पार्टी" के समर्थक या वॉलंटियर कहने वाले लोग सोशल मिडिया पर अरविन्द की बुरी तरह आलोचना कर रहे है है। 
कारण?
हम्म्म …… 
सच पूछो तो असली कारण किसी को नहीं पता पर हाँ आलोचना और गालियों की कमी नहीं है, इल्जाम लगने शुरू हो गए है और जो कुछ लोग अब भी पार्टी के समर्थन में खड़े है उन्हें अंध भक्त की संज्ञा देना शुरू हो चुका है। 
कितना अच्छा चल रहा था सब कुछ पार्टी ने भारत के इतिहास में एक नया इतिहास रच दिया इतनी जबरदस्त सफलता के साथ और साथ ही साथ इस सफलता के अरविन्द का कद और भी बड़ा हो गया। 
खैर पहले ही बतादूं मेरे पास कोई पद नहीं "आम आदमी पार्टी" में और शायद जिन्हे हम सब बड़े नेता मानते है "आप" के उन्हें तो ये भी नहीं पता होगा की राम किरोड़ीवाल नाम का एक समर्थक है उनका। ये मैंने इसलिए लिखा तांकि ये साफ़ हो जाए की मैं किसी की वकालत करने के लिए नहीं लिख रहा हूँ, हाँ मेरे मन में विचार थे सो मैंने लिखना जरुरी समझा। 
जब तक लोग ये आवाज उठाते है की हमे पूरी जानकारी दी की ऐसा क्यों हुआ? तब तक तो ठीक है पर जब आप अरविन्द को भला बुरा कहना शुरू कर देते है, उन पर तानाशाह का आरोप लगाते है और भी आगे आप अभद्र भाषा का प्रयोग करते है तब अफ़सोस होता है की क्या हम वाकई में इतने कमजोर है की अपने आप को कुछ दिन के लिए रोक नहीं सके? कुछ दिन हम इन्तजार नहीं कर सकते इस पुरे घटनाक्रम पर पार्टी की तरफ से कोई स्पष्टीकरण आने तक?
अब लोग कह रहे है तानाशाह तो है ही अरविन्द उसने खिलाफ बोलने पर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को बाहर का रास्ता दिखा दिया? मैं आपके इस तर्क से असहमत हूँ। 
यदि अरविन्द तानाशाह होता तो ये चार-पांच दिन से मसला चल रहा था, वो तुरंत अपना तानाशाही फरमान जारी करते और योगेन्द्रजी व प्रशांत जी को पार्टी से निष्काषित कर देते। पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया, पार्टी के राष्ट्रिय कार्यकारिणी की मीटिंग हुयी और उसमे खुद अरविन्द नहीं आये ताकि यदि किसी को उनके खिलाफ बोलना है आसानी से बोले, पता नहीं सामने सभी अच्छा बोले मजबूरी में क्योंकि तानाशाह जो ठहरे अरविन्द तो उनकी अनुपस्तिथि में आराम से आप बोल सकते है। 
कुल आठ घंटे "आप" की राष्ट्रिय कार्यकारिणी की बैठक चली तो इन आठ घंटो में जाहिर है हर तरह के मुद्दे उठे है, सवाल जवाब हुए है, आरोप प्रत्यारोप हुए है, सभी ने अपना पक्ष रखा है। योगेन्द्रजी और प्रशांत जी ने भी अपना पक्ष रखा है और हाँ इन विचारो की जंग में वो अकेले नहीं थे उनके भी समर्थन में आखिर में आठ वोट आये है और विपक्ष में 11 वोट गए तो कुल मिलाकर इस आठ घंटे की मीटिंग में एक तरह से माने दो टीम थी, एक तरफ आठ लोग थे दूसरी तरफ 11 लोग थे तो कमजोर तो दुसरा दल भी नहीं था। उन्होंने अपनी बात राखी है बस हाँ, वो 2 और लोगो को अपने विचारो से जोड़ने में नाकामयाब रहे और इसके फलस्वरूप उन्हें "आप" की "PAC" से बाहर जाना पड़ा। ना वो पार्टी से बाहर हुए है, ना उनकी सदस्यता खत्म हुयी है हाँ एक कमेटी के सदस्य नहीं है, तो यदि कुछ लोग जो इसे गलत मानते है की इन्हे बाहर क्यों निकाला वो क्या इस पार्टी में इसीलिए जुड़े है की कुछ लोगो को एक पद और प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए?
जब साफ़ कहा जाता है की यदि पद और टिकेट के लिए पार्टी से जुड़ना चाहते है तो प्लीज इस पार्टी में मत आइये और बहुत से दल है किसी में भी चले जाइए, अगर यहां आना है तो सेवा के लिए आये। 
तो जब हमे सेवा ही करनी है तो उसके लिए कोई पद है या नही उससे कौनसा फर्क पड़ता है?
अब लोग कहने लग गए की "आप" भी अन्य दलों के जैसे हो गयी जो खिलाफ बोलता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है भाई यदि सच में ऐसा होता तो मैं फिर दोहरा रहा हूँ ये मीटिंग करने की जरुरत ही नहीं थी यो ही एक आदेश निकल देते की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने हस्ताक्षर करके एक पत्र  दिया है की इन्हे PAC से हटाया जाए और हमने हटा दिया है, भाई मेरे आठ घंटे तक सभी 20-25  लोग एक बंद कमरे में बात क्यों करते? 
अब आप कह सकते है की अपनी छवि खराब ना हो इसके लिए ये सब नाटक किया गया, तो क्या अब छवि खराब नहीं हुयी? क्या अब लोग सवाल नहीं उठा रहे? क्या अब लोग भला बुरा नहीं कह रहे? थोड़ा तो अपना दिमाग लगाओ भाई!! या फिर जब तक पार्टी की तरफ से इस सारे प्रकरण पर कोई स्पष्टीकरण नहीं आता तब तक हम शांत रहे या ये मांग करते रहे की हम इस पर जल्द स्पष्टीकरण दे। 
योगेन्द्रजी और प्रशांत जी आज भी पार्टी में वरिष्ठ सदस्य है, किसी पद मिलने और न मिलने से क्या उनके वरिष्ठता या उनके अनुभवों पर कुछ असर पड़ता है क्या? और हाँ यदि आज बाहर है PAC से तो क्या कल वापस अंदर नहीं आ सकते? जिन आठ लोगो ने उनका समर्थन किया था की उनेह PAC से नहीं हटाया जाना चाहिए वो तो अभी भी अंदर ही है ना!!! उन्हें तो उठाकर बाहर नहीं किया? वो कल को इस की दुबारा मांग कर सकते है। 
अब ये मत कहना की भाई जो अरविन्द चाहते है वही होता है। 
अरविन्द तो कभी नहीं चाहता था की "आम आदमी पार्टी" लोकसभा चुनाव में पूरे देश में चुनाव लड़े, पर इसी राष्ट्रिय कार्यकारिणी में उस समय बहुमत उन लोगो के साथ चला गया जो चाहते थे "आप" पूरे देश में चुनाव लड़े। अरविन्द तानाशाह ही होता तो तब अपना तानाशाही फरमान जारी कर सकता था की नही मैंने कह दिया चुनाव नहीं लड़ेंगे तो नहीं लड़ेंगे! पर उन्होंने स्वीकार किया बहुमत सो जो निर्णय लिया उसको और स्वीकार ही नहीं किया अपनी जी जान भी लगाई इस लड़ाई को लड़ने के लिए खैर वो अलग बात है की फिर उसमे सफलता नहीं मिली। 
लिखने को बहुत कुछ है जब शुरू कर दिया तो अंत होने का नाम ही नहीं ले रहा, पर शायद इतना ज्यादा पढ़ते पढ़ते आप भी बोर हो जाएंगे तो बेहतर होगा यही कहते हुए मैं अपनी बात को विराम दूँ, संकट की घड़ी है सब साथ दे, आपके विचार है राय है तो उन्हें लोगो को सामने रखे, आरोप प्रत्यारोप से बचे, और हाँ कम से कम अरविन्द को तानशाह, लालची, सत्ता का घमंड ये उपमाए तो ना दे भगवान के लिए। 

और हाँ एक आखिर हिंट दे देता हूँ इस सारे घटनाक्रम को आप इस नजरिये से देख सकते है "अरविन्द को क्यों जरुरत पड़ी रामलीला मैदान से अपनी बात कहने की" कि जब से हमे ये अपार सफलता मिली है हमारे कुछ साथी उत्साह में घोषणा करने लग गए है अब हम यहां से चुनाव लड़ेंगे अब हम वहां से चुनाव लड़ेंगे, हम अभी कहीं से चुनाव नहीं लड़ेंगे हमारा पूरा ध्यान दिल्ली पर केंद्रित रहेगा, यहाँ के लोगो ने जो उम्मीद हमसे लगाई है हम उसे पूरा करने में अपनी जी जान लगाएंगे। 
मुझे तो कुछ तभी लगने लग गया था की पार्टी में सब कुछ ठीक तो नहीं है वरना एक राष्ट्रीय कन्वेनर को क्या जरुरत पड़ी ये बात भी रामलीला मैदान से घोषणा करने की। 


Teg: Arvind kejriwal, aam aadmi party, yogendra yaadav, prashaant bhushan, AAP, YO YO, Yo ya, Yo ya and PB, Yo&PB, NE, PAC,

No comments:

Post a Comment