Saturday, July 30, 2016

कौन हूँ मैं?

मातृभूमि से दूर
बड़ा मुश्किल होता है अपनी मातृभूमि से दूर रहना।
देश की बात करे तो लोग कहते है किस देश की बात करते हो उसे तो आपने कभी का छोड़ दिया, अगर देश से ही आपको प्यार होता तो कभी उसे छोड़कर ना जाते।
और जब जिस देश में रहते है उस देश की बात करते है तो लोग कह देते है तुम तो यहाँ के हो ही नहीं तुम्हे बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है।
आखिर क्या है मेरी पहचान?
कौन हूँ मैं? मेरे भारतीय होने की पहचान कैसे होगी? मेरे इन्डियन पासपोर्ट से जो की मेरे पास है, मेरा परिवार जो अभी भी उसी धरती पर रहता है उनसे या मेरे सीने में भारत माँ के लिए प्यार है उससे?
जब जब भारत माँ के आचंल के साथ  कुछ भी गलत होता यहाँ इतनी दूर बैठा भी सिहर उठता हूँ, कई दिनों तक दिल में बैचैनी और तड़फ रहती है क्यों ऐसा हो रहा है मेरे देश में?
और जब जब देश में कुछ अच्छा होता है तो गर्व से सीना चार गुना चौड़ा हो जाता है, कई दिनों तक  भारतीय जो यहाँ रहते है और जो भी इटालियन (इटली में रहता हूँ तो इटालियन दोस्त भी बहुत है ) दोस्त है के साथ बखान करते रहता हूँ, बार बार उसे दोहराता हूँ और जितनी बार भी बताता हूँ उतना ही जोश और आँखों में चमक बढ़ती जाती है।
तो मैं कौन हुआ?
मुझे कहाँ और किसके पक्ष में बोलने का अधिकार है?
या सदा इसी तरह जीना पड़ेगा? वहाँ रहते नहीं तो वहाँ के अब है नहीं, और यहाँ रहता हूँ पर विदेशी हूँ तो यहाँ का हो नहीं सकता?

Friday, July 8, 2016

अपाहिज होते पत्रकार

एक समय था जब पत्रकार और पत्रकारिता अपने दम पर बड़े बड़े सिंहासन हिला देती थी, जब एक पत्रकार अपना कैमरा नेताओं की तरफ घुमाकर सवाल के लिए मुहँ खोलता था तो उससे पहले नेताजी मुँह फिराकर भागने की सोचने लग जाते, की कही ये कोई सवाल कर लगा तो क्या जवाब देंगे।

तब नेता कैमरे का सामना करने की हिम्मत तभी करते थे जब उन्होंने सच में बहुत अच्छा काम कर दिया होता था। जब इतनी ताकत थी मीडिया के उस कैमरे और पत्रकार की कलम में तो आज फिर क्यों पत्रकार की कलम और मिडिया का कैमरा अपने आप में लाचार बेबस सा नजर आने लगता है?

सभी पत्रकार और संवाददाता तब भी किसी ना किसी दल के समर्थक होते थे पर उस समय उनमे भक्ति नहीं होती थी, उन्हें अपने राजनैतिक झुकाव से कहीं ज्यादा अपने दावित्य अपनी जिम्मेदारियों का ख्याल रहता था, हाँ कोई कोई तब भी अपवाद निकल जाता था पर आजकल तो पत्रकारिता को सही मायने में ज़िंदा रखने वाले एक अपवाद के तरह मिलते है।

जब से टीवी स्टूडियों के एंकर सवाल करते करते अचानक से खुद को प्रवक्ता समझ जिस दल के प्रति उनका रुझान होता है उसकी तरफ से सवाल करना शुरू करते करते धीरे धीरे अपने एंकर वाले पद से प्रवक्ता पद पर आकर उसी दल की तरफ से राज्य सभा में मंत्री या लोकसभा की टिकट हासिल करने लगे तब से कमोबेश हर तरफ टीवी स्टूडियों में बैठे एंकर अंदर ही अंदर ये चाहत रखने लग गए की वो गया है तो हम भी जा सकते है और इसी चाहत को बल देने  के लिए अपने दावित्व को भूल उस दल विशेष के प्रति काम करना शुरू कर देते है और यही से शुरुआत होती है अपने शक्तियों को कम करने की, उस शक्तिशाली कैमरे को कमजोर करने की।
और ये फिर यहाँ तक ही सिमित नहीं रहता फिर वो अपनी चापलूसी और उस दल विशेष के प्रति अपनी आगाध शृद्धा को और मजबूत बनाने के लिए अपने ही पेशे में किसी अन्य एंकर के सवाल पर भी सवाल खड़े करने लग जाता है, उस दल विशेष से किये गए किसी भी एंकर के सवाल को तोड़ मरोड़ कर अपने टीवी स्टूडियों में पेश कर दूसरे एंकर की फजीहत करना ये लोग अपना परम कर्तव्य समझने लगते है और ऐसा करते करते हो वो एकदम से भूल जाते है की वो नेता नहीं एक जिम्मेदार पत्रकार/सवांददाता/एंकर है।

जब आप भूल जाते है की आप क्या है तो स्वतः ही आपकी सभी शक्तियाँ भी समाप्त हो जाती है जैसे पवन पुत्र हनुमान अपनी भूल गए थे की वो कौन है तो वो अपनी शक्तियाँ भी भूल गए थे फिर सभी वानरों ने उनकी स्तुति कर उन्हें उनकी शक्तियाँ याद दिलाई तो वही हनुमान जी जो समुद्र को देखकर ही डर रहे थे एक छलांग में की योजन लांघ गए थे।

कई बार तो मन में प्रश्न आता है की जब एक पुलिसकर्मी अपनी जिम्मेदारी का सही तरीके से पालन नहीं करता तो उसे नौकरी से हटा दिया जाता है, किसी शिक्षक का परीक्षा परिणाम थोड़ा कम रहने पर उसे हजार सवालों का जवाब देना होता है, यहां तक की सीमा पर अपनी जान की परवाह किये बगैर हमारी सुरक्षा करने वाले सैनिकों से भी थोड़ी सी गलती पर उन्हें बड़ी से बड़ी सजा दे दी जाती है तो फिर ये पत्रकार/संवाददाता/एंकर जब अपना काम सही तरीके से नहीं करते है तो फिर इन्हे कोई सजा क्यों नहीं देता? क्यों इन्हे इनके पद पर बने रहने  दिया जाता है?

पत्रकारिता का विद्यार्थी तो नहीं रहा कभी पर इतना तो जानता हूँ की

"एक पत्रकार का कर्तव्य सत्ता से सवाल करना होता है सत्ता के गुणगान करना नहीं" 


जब तक इस देश का एक भी नागरिक भूखा सोता है, एक भी बच्चा शिक्षा से वंचित रहता है, देश के किसी भी कौने में एक भी किसान आत्महत्या करने पर मजबूर होता है तो पत्रकार का दावित्य होता है की सत्ता से सवाल करे, उसे जब मौका मिले सत्तापक्ष को सामने पाने का अपने कैमरा उनकी तरफ घुमाए और सवाल करे की ऐसा उनके साशन काल में कैसे हो गया?
पर यदि वो सवाल करने के बजाय गुणगान करने लग जाए तो समझो पत्रकारिता अपनी साख खो रही होती है और पत्रकार खुद तो अपाहिज होता ही है साथ ही साथ आने वाली पीढ़ियों को भी अपाहिज कर जाता है।

पर इस दौर में भी कुछ पत्रकार ऐसे बचे हुए है जिनके दम पर ये पत्रकारिता  ज़िंदा है और आप और मुझ जैसे लाखो लोगो का पत्रकारिता पर भरोसा कायम रखे हुए है।
धन्यवाद उन सभी पत्रकारों का जो सत्ता की इस भेड़चाल के साथ ना होकर हजारो गालियाँ झेलते हुए भी पत्रकारिता को ज़िंदा रखे हुए है।

नाम लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि चाहे हम उन एंकर/संवाददाताओं के हितेषी हो या गाली देने वालो में से पता आखिर सभी को है की सच्चा पत्रकार/एंकर/संवाददाता कौन है और कौन सत्ता के आधीन होकर खुद को अपाहिज बनाये हुए है।

धन्यवाद
जय हिन्द